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जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो | शाही शायरी
jab ki pahlu mein hamare but-e-KHud-kaam na ho

ग़ज़ल

जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो

बहादुर शाह ज़फ़र

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जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो
गिर्ये से शाम-ओ-सहर क्यूँ कि हमें काम न हो

ले गया दिल का जो आराम हमारे या रब
उस दिल-आराम को मुतलक़ कभी आराम न हो

जिस को समझे लब-ए-पाँ-ख़ुर्दा वो मालिदा-मिसी
मर्दुमाँ देखियो फूली वो कहीं शाम न हो

आज तशरीफ़ गुलिस्ताँ में वो मय-कश लाया
कफ़-ए-नर्गिस पे धरा क्यूँकि भला जाम न हो

कर मुझे क़त्ल वहाँ अब कि न हो कोई जहाँ
ता मिरी जाँ तू कहीं ख़ल्क़ में बदनाम न हो

देख कर खोलियो तू काकुल-ए-पेचाँ की गिरह
कि मिरा ताइर-ए-दिल उस के तह-ए-दाम न हो

बिन तिरे ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम ये दिल को है ख़तर
तेरे आशिक़ का तमाम आह कहीं काम न हो

आज हर एक जो यारो नज़र आता है निढाल
अपनी अबरू की वो खींचे हुए समसाम न हो

है मिरे शोख़ की बालीदा वो काफ़िर आँखें
जिस के हम चश्म ज़रा नर्गिस-ए-बादाम न हो

सुब्ह होती ही नहीं और नहीं कटती रात
रुख़ पे खोले वो कहीं ज़ुल्फ-ए-सियह-फ़ाम न हो

ऐ 'ज़फ़र' चर्ख़ पे ख़ुर्शीद जो यूँ काँपे है
जल्वा-गर आज कहीं यार लब-ए-बाम न हो