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जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स | शाही शायरी
jab kaho kyun ho KHafa kya bais

ग़ज़ल

जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

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जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स
कहते हैं पूछने का क्या बाइ'स

भोली सूरत की है ख़ूबी वर्ना
हो अदू दोस्त-नुमा क्या बाइ'स

मैं ने की आह तो बोले नागाह
हो गए गर्म हुआ क्या बाइ'स

आता है देख के अंजुम को ख़याल
है फ़लक आबला-पा किया बाइ'स

वा'दा करने की ज़रूरत क्या थी
फिर न आने का भला क्या बाइ'स

गर न थी हिज्र में उम्मीद-ए-विसाल
जीते रहने का हुआ क्या बाइ'स

दम निकलता है मिरा रुक रुक कर
कुनद है तेग़-ए-क़ज़ा क्या बाइ'स

चश्मा-ए-ख़िज़्र में मय ही बे-शक
आब हो उम्र-फ़ज़ा क्या बाइ'स

तुम करो तर्क-ए-जफ़ा क्या इम्कान
हम करें तर्क-ए-वफ़ा किया बाइ'स

नाला करता नहीं 'नाज़िम' तासीर
तीर होता है ख़ता क्या बाइ'स