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जब कभी यादों का दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब | शाही शायरी
jab kabhi yaadon ka darwaza khula aaKHir-e-shab

ग़ज़ल

जब कभी यादों का दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब

रौनक़ दकनी

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जब कभी यादों का दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब
कोई दर आया ब-अंदाज़-ए-हवा आख़िर-ए-शब

हम पशेमान इधर और उधर वो नादिम
शाम का भूला हुआ आ ही गया आख़िर-ए-शब

दिल के आँगन में ब-सद नाज़ था वो महव-ए-ख़िराम
फूल ही फूल था नक़्श-ए-कफ़-ए-पा आख़िर-ए-शब

कर सका पेश न उर्यानी का जब कोई जवाज़
आ गया ओढ़ के मरियम की रिदा आख़िर-ए-शब

साँवली शाम की ज़ुल्फ़ों के परस्तार तमाम
हो गए आप ही मसरूफ़-ए-दुआ आख़िर-ए-शब

नींद आ ही गई वामाँदा थे आ'साब तमाम
ठंडी ठंडी जो चली मौज-ए-सबा आख़िर-ए-शब

वो कसक मुर्ग़-ए-सहर की थी नवा में 'रौनक़'
दिल पे इक नश्तर-ए-एहसास लगा आख़िर-ए-शब