जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई
अज़-सर-ए-नौ दास्तान-ए-शौक़ दोहराई गई
बिक गए जब तेरे लब फिर तुझ को क्या शिकवा अगर
ज़िंदगानी बादा ओ साग़र से बहलाई गई
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई
हम करें तर्क-ए-वफ़ा अच्छा चलो यूँ ही सही
और अगर तर्क-ए-वफ़ा से भी न रुस्वाई गई
कैसे कैसे चश्म ओ आरिज़ गर्द-ए-ग़म से बुझ गए
कैसे कैसे पैकरों की शान-ए-ज़ेबाई गई
दिल की धड़कन में तवाज़ुन आ चला है ख़ैर हो
मेरी नज़रें बुझ गईं या तेरी रानाई गई
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई
जुरअत-ए-इंसाँ पे गो तादीब के पहरे रहे
फ़ितरत-ए-इंसाँ को कब ज़ंजीर पहनाई गई
अरसा-ए-हस्ती में अब तेशा-ज़नों का दौर है
रस्म-ए-चंगेज़ी उठी तौक़ीर-ए-दाराई गई
ग़ज़ल
जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई
साहिर लुधियानवी