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जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं | शाही शायरी
jab kabhi dariya mein hote saya-afgan aap hain

ग़ज़ल

जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं

बहादुर शाह ज़फ़र

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जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
फ़िल्स-ए-माही को बताते माह-ए-रौशन आप हैं

सीते हैं सोज़न से चाक-ए-सीना क्या ऐ चारासाज़
ख़ार-ए-ग़म सीने में अपने मिस्ल-ए-सोज़न आप हैं

प्यार से कर के हमाइल ग़ैर की गर्दन में हाथ
मारते तेग़-ए-सितम से मुझ को गर्दन आप हैं

खींच कर आँखों में अपनी सुर्मा-ए-दुम्बाला-दार
करते पैदा सेहर से नर्गिस में सोसन आप हैं

देख कर सहरा में मुझ को पहले घबराया था क़ैस
फिर जो पहचाना तो बोला हज़रत-ए-मन आप हैं

जी धड़कता है कहीं तार-ए-रग-ए-गुल चुभ न जाए
सेज पर फूलों की करते क़स्द-ए-ख़ुफ़तन आप हैं

क्या मज़ा है तेग़-ए-क़ातिल में कि अक्सर सैद-ए-इश्क़
आन कर उस पर रगड़ते अपनी गर्दन आप हैं

मुझ से तुम क्या पूछते हो कैसे हैं हम क्या कहें
जी ही जाने है कि जैसे मुश्फ़िक़-ए-मन आप हैं

पुर-ग़ुरूर ओ पुर-तकब्बुर पुर-जफ़ा ओ पुर-सितम
पुर-फ़रेब ओ पुर-दग़ा पुर-मक्र ओ पुर-फ़न आप हैं

ज़ुल्म-पेशा ज़ु़ल्म-शेवा ज़ु़ल्म-रान ओ ज़ुल्म-दोस्त
दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-जाँ दुश्मन-ए-तन आप हैं

यक्का-ताज़ ओ नेज़ा-बाज़ ओ अरबदा-जू तुंद-ख़ू
तेग़ज़न दश्ना-गुज़ार ओ नावक-अफ़गन आप हैं

तस्मा-कश तराज़ ओ ग़ारत-गर ताराज-साज़
काफ़िर यग़माई ओ क़ज़्ज़ाक़ रहज़न आप हैं

फ़ित्ना-जू बेदाद-गर सफ़्फ़ाक ओ अज़्लम कीना-वर
गर्म-जंग ओ गर्म-क़त्ल ओ गर्म-कुश्तन आप हैं

बद-मिज़ाज ओ बद-दिमाग़ व बद-शिआर ओ बद-सुलूक
बद-तरीक़ ओ बद-ज़बाँ बद-अहद ओ बद-ज़न आप हैं

बे-मुरव्वत बेवफ़ा ना-मेहरबाँ ना-आश्ना
मेरे क़ातिल मेरे हासिद मेरे दुश्मन आप हैं

ऐ 'ज़फ़र' क्या पा-ए-क़ातिल के है बोसे की हवस
यूँ जो बिस्मिल हो के सरगर्म-ए-तपीदन आप हैं