जब कभी बात किसी की भी बुरी लगती है
ऐसा लगता है कि सीने में छुरी लगती है
रात भारी थी तो थे उस के सितम से बे-ज़ार
सुब्ह आई है तो वो और बुरी लगती है
वो हो आराइश-ए-अफ़कार कि ज़ेबाइश-ए-फ़न
आज दोनों की रविश ख़ाना-पुरी लगती है
लोग माँगे के उजाले से हैं ऐसे मरऊब
रौशनी अपने चराग़ों की बुरी लगती है
अहल-ए-दानिश हुए अरबाब-ए-सियासत के मुरीद
ऐसी पस्ती पे मिरे दिल में छुरी लगती है
ग़ज़ल
जब कभी बात किसी की भी बुरी लगती है
आल-ए-अहमद सूरूर