जब झूट रावियों के क़लम बोलने लगे
हर ख़ुद-सरी को जाह-ओ-हशम बोलने लगे
इक इज़्न-ए-लब-कुशाई ने बेबाक कर दिया
देखो किस ए'तिमाद से हम बोलने लगे
कोई किसी से पूछ रहा था तिरा सुराग़
उठ उठ के मेरे नक़्श-ए-क़दम बोलने लगे
समझे थे आस्तीन छुपा लेगी सब गुनाह
लेकिन ग़ज़ब हुआ कि सनम बोलने लगे
हक़-गोई के महाज़ पे मंज़र बदल गया
ख़ामोश सब अरब हैं अजम बोलने लगे
तंबीह की थी दिल की दहन भी सिए मगर
मैं क्या करूँ कि दीदा-ए-नम बोलने लगे
माहौल बद-गुमान था तंग आ के 'ताज' भी
ख़ामोश होने वाले थे कम बोलने लगे
ग़ज़ल
जब झूट रावियों के क़लम बोलने लगे
हुसैन ताज रिज़वी