जब हवा शब को बदलती हुई पहलू आई
मुद्दतों अपने बदन से तिरी ख़ुश्बू आई
मेरे नग़्मात की तक़दीर न पहुँचे तुझ तक
मेरी फ़रियाद की क़िस्मत कि तुझे छू आई
अपनी आँखों से लगाती हैं ज़माने के क़दम
शहर की राह-गुज़ारों में मिरी ख़ू आई
हाँ नमाज़ों का असर देख लिया पिछली रात
मैं इधर घर से गया था कि उधर तू आई
मुज़्दा ऐ दिल किसी पहलू तो क़रार आ ही गया
मंज़िल-ए-दार कटी साअत-ए-गेसू आई
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ग़ज़ल
जब हवा शब को बदलती हुई पहलू आई
मुस्तफ़ा ज़ैदी