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जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया | शाही शायरी
jab ham-baghal wo sarw qaba posh ho gaya

ग़ज़ल

जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया

मुनीर शिकोहाबादी

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जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
क़ुमरी का तौक़ हल्क़ा-ए-आग़ोश हो गया

अशआर मेरे सुन के वो ख़ामोश हो गया
ग़ुंचा ब-रंग-ए-गुल हमा-तन-गोश हो गया

पी ग़ैर ने शराब मुझे बे-ख़ुदी हुई
नश्शा चढ़ा किसी को मैं बेहोश हो गया

इस दर्जा बे-ख़ुदी ने दिखाईं तअल्लियाँ
गर्दूं ग़ुबार-ए-क़ाफ़िला-ए-होश हो गया

तेग़-ए-अजल की काट से डरता नहीं हूँ मैं
ज़ख़्मों से जिस्म-ए-ज़ार ज़िरा-पोश हो गया

ऐ बुत ख़याल-ए-वस्फ़-ए-दहन में न पाई राह
भटका फिरा सुख़न जो मैं ख़ामोश हो गया

ख़ूँ-ख़्वारों के हुज़ूर न आया हमारी तरह
आईना जौहरों से ज़िरा-पोश हो गया

तालेअ' जगाए आप ने अर्बाब-ए-इश्क़ के
यूसुफ़ का हुस्न ख़्वाब-ए-फ़रामोश हो गया

पिन्हाँ है ज़ेर-ए-सब्ज़ा-ए-ख़त आतिश-ए-एज़ार
शोला फ़ुसून-ए-हुस्न से ख़स-पोश हो गया

हूरें गले लिपटती हैं आ आ के रात दिन
जन्नत की राह कूचा-ए-आग़ोश हो गया

उस मस्त-ए-हुस्न की निगह-ए-गर्म के हुज़ूर
आईना-ए-जाम बादा-ए-सर-जोश हो गया

बे-लुत्फ़ियों से तुम जो मिले मैं ने जान दी
फाँसी गले में हल्क़ा-ए-आग़ोश हो गया

अब्र-ए-सियह के साये ने सुर्मा खिला दिया
सब्ज़ा तमाम तूती-ए-ख़ामोश हो गया

काँधों से मेरे कातिब-ए-आमाल गिर पड़े
तड़पा मैं इस क़दर कि सुबुक-दोश हो गया

कानों का हुस्न जल्वा-ए-आरिज़ से पड़ गया
रुख़ आफ़्ताब-ए-सुब्ह बुना-गोश हो गया

उड़ता हूँ इश्क़ में लब लालीँ के ऐ 'मुनीर'
गोया शरार आतिश-ए-ख़ामोश हो गया