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जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे | शाही शायरी
jab dil mein zara bhi aas na ho izhaar-e-tamanna kaun kare

ग़ज़ल

जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे

आनंद नारायण मुल्ला

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जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे
अरमान किए दिल ही में फ़ना अरमान को रुस्वा कौन करे

ख़ाली है मिरा साग़र तो रहे साक़ी को इशारा कौन करे
ख़ुद्दारी-ए-साइल भी तो है कुछ हर बार तक़ाज़ा कौन करे

जब अपना दिल ख़ुद ले डूबे औरों पे सहारा कौन करे
कश्ती पे भरोसा जब न रहा तिनकों पे भरोसा कौन करे

आदाब-ए-मोहब्बत में भी अजब दो दिल मिलने को राज़ी हैं
लेकिन ये तकल्लुफ़ हाइल है पहला वो इशारा कौन करे

दिल तेरी जफ़ा से टूट चुका अब चश्म-ए-करम आई भी तो क्या
फिर ले के इसी टूटे दिल को उम्मीद दोबारा कौन करे

जब दिल था शगुफ़्ता गुल की तरह टहनी काँटा सी चुभती थी
अब एक फ़सुर्दा दिल ले कर गुलशन की तमन्ना कौन करे

बसने दो नशेमन को अपने फिर हम भी करेंगे सैर-ए-चमन
जब तक कि नशेमन उजड़ा है फूलों का नज़ारा कौन करे

इक दर्द है अपने दिल में भी हम चुप हैं दुनिया ना-वाक़िफ़
औरों की तरह दोहरा दोहरा कर उस को फ़साना कौन करे

कश्ती मौजों में डाली है मरना है यहीं जीना है यहीं
अब तूफ़ानों से घबरा कर साहिल का इरादा कौन करे

'मुल्ला' का गला तक बैठ गया बहरी दुनिया ने कुछ न सुना
जब सुनने वाला हो ऐसा रह रह के पुकारा कौन करे