जब दिल की ख़लिश बढ़ जाती है मजबूर जब इंसाँ होता है
जीना जिसे मुश्किल हो जाए मरना उसे आसाँ होता है
आई थी जवानी हम पर भी हम ने भी बहारें देखी हैं
इस दौर से हम भी गुज़रे हैं इक ख़्वाब-ए-परेशाँ होता है
बे-कार है शिकवा अपनों का बे-सूद शिकायत ग़ैरों की
जब वक़्त बुरा आ जाता है साया भी गुरेज़ाँ होता है
मैं उन के सितम सब भूल गया मुझ को तो करम याद आते हैं
वो सर भी उठा सकता है कभी जो बंदा-ए-एहसाँ होता है
हर-वक़्त उलझते रहते हैं ये हाथ किसी के दामन से
जब होश मुझे आ जाता है मेरा ही गरेबाँ होता है
हर एक को जाना पड़ता है दुनिया के मुसाफ़िर ख़ाने से
कुछ रोज़ इक़ामत होती है कुछ रोज़ का मेहमाँ होता है
ऐ ज़ाहिद-ए-ख़ुद-बीं रहमत-ए-हक़ आग़ोश में उस को ले लेगी
जो अपने गुनाहों पर दिल में हर-वक़्त पशेमाँ होता है
जो देख रहे हैं साहिल से ये हाल भला वो क्या जानें
तूफ़ाँ से गुज़रने वालों को अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ होता है
ये इश्क़-ओ-वफ़ा की बातें हैं पूछे कोई 'शंकर' के दिल से
वो सामने जब आ जाते हैं हर साँस ग़ज़ल-ख़्वाँ होता है

ग़ज़ल
जब दिल की ख़लिश बढ़ जाती है मजबूर जब इंसाँ होता है
शंकर लाल शंकर