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जब भी पढ़ा है शाम का चेहरा वरक़ वरक़ | शाही शायरी
jab bhi paDha hai sham ka chehra waraq waraq

ग़ज़ल

जब भी पढ़ा है शाम का चेहरा वरक़ वरक़

साबिर ज़ाहिद

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जब भी पढ़ा है शाम का चेहरा वरक़ वरक़
पाया है आफ़्ताब का माथा अरक़ अरक़

लहजे में ढूँढिए न हलावत कि उम्र भर
लम्हों का ज़हर हम ने पिया है रमक़ रमक़

थे क़हक़हे सराब समुंदर जो पी गए
कहने को दिल के घाव थे रौशन तबक़ तबक़

क़ातिल का मिल सका न भरे शहर में सुराग़
हर चंद मेरा ख़ून था फैला शफ़क़ शफ़क़

जो शख़्स धड़कनों में रहा मुद्दतों असीर
उस की तलाश ले गई हम को उफ़क़ उफ़क़

टकरा गया था भीड़ में ख़ुशबू का क़ाफ़िला
मल्बूस सरसराते बदन थे अबक़ अबक़

'ज़ाहिद' नई ग़ज़ल है कि तक़्सीम का हिसाब
बाँधे हैं तुम ने ख़ूब क़्वाफ़ी अदक़ अदक़