जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया
आफ़्ताब-ए-वक़्त नेज़े के बराबर आ गया
दोस्ती की जब दुहाई दी तो शर्क़-ओ-ग़र्ब से
हाथ में पत्थर लिए यारों का लश्कर आ गया
इस सफ़र में गो तमाज़त तो बहुत थी हिज्र की
मैं तिरी यादों की छाँव सर पे ले कर आ गया
गो ज़मीन-ओ-आसमाँ मसरूफ़-ए-गर्दिश हैं मगर
जब भी गर्दिश का सबब सोचा तो चक्कर आ गया
आदमी को हश्र के मंज़र नज़र आने लगे
उस के क़ब्ज़े में जब इक ज़र्रे का जौहर आ गया
हुस्न-ए-इंसाँ दफ़्न हो जाने से मिटता है कहाँ
फूल बन कर ख़ाक के पर्दे से बाहर आ गया
अश्क जब टपके किसी बेकस की आँखों से 'नदीम'
यूँ लगा तूफ़ान की ज़द में समुंदर आ गया
ग़ज़ल
जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया
अहमद नदीम क़ासमी