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जब भी आँखों में तिरे वस्ल का लम्हा चमका | शाही शायरी
jab bhi aaankhon mein tere wasl ka lamha chamka

ग़ज़ल

जब भी आँखों में तिरे वस्ल का लम्हा चमका

अमजद इस्लाम अमजद

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जब भी आँखों में तिरे वस्ल का लम्हा चमका
चश्म-ए-बे-आब की दहलीज़ पे दरिया चमका

फ़स्ल-ए-गुल आई खुले बाग़ में ख़ुश्बू के अलम
दिल के साहिल पे तिरे नाम का तारा चमका

अक्स बे-नक़्श हुए आइने धुँदलाने लगे
दर्द का चाँद सर-ए-बाम-ए-तमन्ना चमका

रंग आज़ाद हुए गुल की गिरह खुलते ही
एक लम्हे में अजब बाग़ का चेहरा चमका

पैरहन में भी तिरा हुस्न न था हश्र से कम
जब खुले बंद-ए-क़बा और ही नक़्शा चमका

दिल की दीवार पे उड़ते रहे मल्बूस के रंग
देर तक उन में तिरी याद का साया चमका

रूह की आँख चका-चौंद हुई जाती है
किस की आहट का मिरे कान में नग़्मा चमका

लहरें उठ उठ के मगर उस का बदन चूमती थीं
वो जो पानी में गया ख़ूब ही दरिया चमका

हिज्र पनपा न तिरा वस्ल हमें रास आया
किसी मैदान में तारा न हमारा चमका

जैसे बारिश से धुले सेहन-ए-गुलिस्ताँ 'अजमद'
आँख जब ख़ुश्क हुई और वो चेहरा चमका