जाते हो तुम जो रूठ के जाते हैं जी से हम
तुम क्या ख़फ़ा हो ख़ुद हैं ख़फ़ा ज़िंदगी से हम
कुछ ऐसे बद-हवास हैं दिल की लगी से हम
कहते हैं मुद्दआ-ए-दिल मुद्दई से हम
बे-ज़ार हो चुके हैं बहुत दिल-लगी से हम
बस हो तो उम्र भर न मिलें अब किसी से हम
ये जानते तो शिकवे न करते रक़ीब के
कहते हैं तेरी ज़िद से मिलेंगे उसी से हम
मुजरिम है कौन दोनों में इंसाफ़ कीजिए
छुप छुप के आप मिलते हैं या मुद्दई से हम
हम और चाह ग़ैर की अल्लाह से डरो
मिलते हैं तुम से भी तो तुम्हारी ख़ुशी से हम
ग़ज़ल
जाते हो तुम जो रूठ के जाते हैं जी से हम
ज़हीर देहलवी