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जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़ | शाही शायरी
jata raha qalb se sari KHudai ka ishq

ग़ज़ल

जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़
क़ाबिल-ए-तारीफ़ है तेरे फ़िदाई का इश्क़

कैसी मुसीबत है ये गुल को ख़मोशी का शौक़
बुलबुल-ए-बेताब को हर्ज़ा-सराई का इश्क़

पड़ गई बकने की लत वर्ना यहाँ तक न था
वाइज़-ए-ना-फ़हम को हर्ज़ा-सराई का इश्क़

करता हूँ जो बार बार बोसा-ए-रुख़ का सवाल
हुस्न के सदक़े से है मुझ को गदाई का इश्क़

तुम को ख़ुदा ने दिया सारी ख़ुदाई का हुस्न
मुझ को अता कर दिया सारी ख़ुदाई का इश्क़

आशिक़ ओ माशूक़ की हाए निभे किस तरह
उन को कुदूरत का शौक़ मुझ को सफ़ाई का इश्क़

पूछ ले 'परवीं' से या क़ैस से दरयाफ़्त कर
शहर में मशहूर है तेरे फ़िदाई का इश्क़