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जानिब-ए-कूचा-ओ-बाज़ार न देखा जाए | शाही शायरी
jaanib-e-kucha-o-bazar na dekha jae

ग़ज़ल

जानिब-ए-कूचा-ओ-बाज़ार न देखा जाए

मख़मूर सईदी

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जानिब-ए-कूचा-ओ-बाज़ार न देखा जाए
ग़ौर से शहर का किरदार न देखा जाए

खिड़कियाँ बंद करें छुप के घरों में बैठें
क्या समाँ है पस-ए-दीवार न देखा जाए

सुर्ख़ियाँ ख़ून में डूबी हैं सब अख़बारों की
आज के दिन कोई अख़बार न देखा जाए

शहर का शहर गुनहगार तो हो सकता है
जब कहीं कोई गुनहगार न देखा जाए

दश्त से कम नहीं वीराँ कोई बस्ती 'मख़मूर'
ये हुजूम-ए-दर-ओ-दीवार न देखा जाए