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जाने वाले तुझे कब देख सकूँ बार-ए-दिगर | शाही शायरी
jaane wale tujhe kab dekh sakun bar-e-digar

ग़ज़ल

जाने वाले तुझे कब देख सकूँ बार-ए-दिगर

शाज़ तमकनत

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जाने वाले तुझे कब देख सकूँ बार-ए-दिगर
रौशनी आँख की बह जाएगी आँसू बन कर

तू हिसार-ए-दर-ओ-दीवार लिए जाए किधर
मेरा क्या है कि मैं हूँ दश्त-ब-दिल ख़ाना ब-सर

कौन जाने मिरी तन्हाई-पसंदी क्या है
बस तिरे ज़िक्र का अंदेशा तिरे नाम का डर

यूँ भी अश्कों का धुँदलका था सुझाई न दिया
किस ने लूटा दम-ए-रुख़्सत सर-ओ-सामान-ए-सफ़र

किस ने देखा है मिरा शहर-ए-ख़मोशान-ए-हयात
दिल की वादी से गुज़रना है तो आहिस्ता गुज़र

रो रहा हूँ कि तिरे साथ हँसा था बरसों
हँस रहा हूँ कि कोई देख न ले दीदा-ए-तर

ये मिरी ज़ख़्म-नसीबी ये तिरी हैरानी
मैं ने तेरे ही इशारा पे तो डाली थी सिपर

टूट जाएगा नशा देख कोई नाम न ले
आँख भर आएगी इस तरह मिरा जाम न भर

कोई गुम-गश्ता हर आग़ाज़-ए-सफ़र से पहले
चूम लेता है तिरी याद का भारी पत्थर

मैं ने हर रात यही सोच के आँसू पोंछे
मुँह दिखाना भी है दुनिया को ब-हंगाम-ए-सहर

'शाज़' को सब्र अता कर के बड़ा काम किया
उस ने क्या माँगा था क्या पाया है ऐ रब-ए-हुनर