जाने किस ख़्वाब-ए-परेशाँ का है चक्कर सारा
बिखरा बिखरा हुआ रहता है मिरा घर सारा
मुतमइन हम थे बहुत जीत हमारी होगी
कैसे फिर आ गया नर्ग़े में ये लश्कर सारा
बादा-ए-ग़म से है सरशार मिरा बातिन भी
और इसी ग़म से उजाला है ये बाहर सारा
मैं ने माँगी थी दुआ टूट के बरसे बादल
अब जो बरसा है तो बरसा है ये छप्पर सारा
मौसम-ए-अब्र की तो बात यूँही आई थी
क्यूँ शराबोर हुआ आप का पैकर सारा
मैं ने सोचा कि सताएगी बहुत प्यास मुझे
पी गया झोंक में बस आ के समुंदर सारा

ग़ज़ल
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कौसर मज़हरी