जाने कैसे मैं सदा बे-बाल-ओ-पर उड़ता रहा
दोस्तों के शहर में मिस्ल-ए-ख़बर उड़ता रहा
उम्र की ये तेज़-गामी और फिर तेरा ख़याल
एक साया सा पस-ए-गर्द-ए-सफ़र उड़ता रहा
कैसे कैसे इम्तिहाँ तू ने लिए ऐ ज़िंदगी
फिर भी मैं बाज़ू-शिकस्ता उम्र-भर उड़ता रहा
जाने क्या समझा के उस को ले गई पागल हवा
देर तक पत्ता शजर से टूट कर उड़ता रहा
पाँव वहशत ने पकड़ रखे थे सहरा देख कर
और तसव्वुर जानिब-ए-दीवार-ओ-दर उड़ता रहा
इक परिंदा अम्न का पाला था हम ने प्यार से
लाख काटे बाल-ओ-पर तुम ने मगर उड़ता रहा
मुंतज़िर इस बार भी आँखें रहें अपनी 'ज़िया'
कोई चेहरा बादलों के दोश पर उड़ता रहा
ग़ज़ल
जाने कैसे मैं सदा बे-बाल-ओ-पर उड़ता रहा
ज़िया फ़ारूक़ी