जान या दिल नज़्र करना चाहिए
कुछ न कुछ उस बुत को पूजा चाहिए
दिल-शिगाफ़ी चाहिए मिस्ल-ए-क़लम
ज़ख़्म सीने का न सीना चाहिए
काट कर सर पार बेड़ा कीजिए
तेग़ के घाटों उतारा चाहिए
मैं फ़िदा हूँ गर तुम्हें बावर न हो
आज़मा देखो उसे क्या चाहिए
कश्ती-ए-मय का लब-ए-जू दौर हो
खेलना मस्तों निवाड़ा चाहिए
मस्त-ए-सर-जोश-ए-शहादत कीजिए
मिस्ल-ए-मय तलवार खींचा चाहिए
वस्ल में बेकार है मुँह पर नक़ाब
शर्म का आँखों पे पर्दा चाहिए
कोई हो पामाल मिस्ल-ए-नक़श-ए-पा
अपने सर पर ख़ाक उड़ाना चाहिए
वो जो समझिए न समझे जी में है
अपने ही पर दिल से समझा चाहिए
सब बुरे अग़्यार हों कुछ ग़म नहीं
वो हसीं बिज़्ज़ात अच्छा चाहिए
आँख का पर्दा अगर मंज़ूर है
चिलमनें मिज़्गाँ की छोड़ा चाहिए
क्या तिलिस्म-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ ऐ 'शाद' है
ये किसी कामिल से पूछा चाहिए
ग़ज़ल
जान या दिल नज़्र करना चाहिए
शाद लखनवी