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जान की बारी है अब दिल का ज़ियाँ ऐसा न था | शाही शायरी
jaan ki bari hai ab dil ka ziyan aisa na tha

ग़ज़ल

जान की बारी है अब दिल का ज़ियाँ ऐसा न था

शकील ग्वालिआरी

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जान की बारी है अब दिल का ज़ियाँ ऐसा न था
ख़ैर जो कुछ भी हुआ हम को गुमाँ ऐसा न था

सख़्त जैसी अब है क़दमों में ज़मीं ऐसी न थी
सर पे जैसा अब है भारी आसमाँ ऐसा न था

इक ज़माना हो गया इस राह से गुज़रे हुए
ये गली ऐसी नहीं थी ये मकाँ ऐसा न था

था ख़स-ओ-ख़ाशाक की मानिंद अपना ही वजूद
सिर्फ़ हम पर ही गिरी हों बिजलियाँ ऐसा न था

उस किनारे का तसव्वुर में भी आना है मुहाल
था तो पहले से समुंदर बे-कराँ ऐसा न था

अपनी नाकामी तो पहले से मुक़द्दर थी 'शकील'
हम पे कुछ मुश्किल रहा हो इम्तिहाँ ऐसा न था