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जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे | शाही शायरी
jaan-e-nashat husn ki duniya kahen jise

ग़ज़ल

जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे

असग़र गोंडवी

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जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे
जन्नत है एक ख़ून-ए-तमन्ना कहें जिसे

उस जल्वा-गाह-ए-हुस्न में छाया है हर तरफ़
ऐसा हिजाब चश्म-ए-तमाशा कहें जिसे

ये असल ज़िंदगी है ये जान-ए-हयात है
हुस्न-ए-मज़ाक़ शोरिश-ए-सौदा कहें जिसे

मेरे विदा-ए-होश को इतना भी है बहुत
ये आब ओ रंग हुस्न का पर्दा कहें जिसे

अक्सर रहा है हुस्न-ए-हक़ीक़त भी सामने
इक मुस्तक़िल सराब-ए-तमन्ना कहें जिसे

अब तक तमाम फ़िक्र ओ नज़र पर मुहीत है
शक्ल-ए-सिफ़ात मानी-ए-अशिया कहें जिसे

हर मौज की वो शान है जाम-ए-शराब में
बर्क़-ए-फ़ज़ा-ए-वादी-ए-सीना कहें जिसे

ज़िंदानियों को आ के न छेड़ा करे बहुत
जान-ए-बहार निकहत-ए-रुस्वा कहें जिसे

इस हौल-ए-दिल से गर्म-रौ-ए-अरसा-ए-वजूद
मेरा ही कुछ ग़ुबार है दुनिया कहें जिसे

सरमस्तियों में शीशा-ए-मय ले के हाथ में
इतना उछाल दें कि सुरय्या कहें जिसे

शायद मिरे सिवा कोई उस को समझ सके
वो रब्त-ए-ख़ास रंजिश-ए-बेजा कहें जिसे

मेरी निगाह-ए-शौक़ पे अब तक है मुनअकिस
हुस्न-ए-ख़याल शाहिद-ए-ज़ेबा कहें जिसे

दिल जल्वा-गाह-ए-हुस्न बना फ़ैज़-ए-इश्क़ से
वो दाग़ है कि शाहिद-ए-राना कहें जिसे

'असग़र' न खोलना किसी हिकमत-मआब पर
राज़-ए-हयात साग़र ओ मीना कहें जिसे