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जाएँ घुड़-दौड़ पर कि खेलें ताश | शाही शायरी
jaen ghuD-dauD par ki khelen tash

ग़ज़ल

जाएँ घुड़-दौड़ पर कि खेलें ताश

क़य्यूम नज़र

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जाएँ घुड़-दौड़ पर कि खेलें ताश
'मीर'-जी राज़-ए-इश्क़ होगा फ़ाश

पत्थरों में लगा रहे हैं जोंक
चाँद में ख़ून-ए-गर्म की है तलाश

यूँ झगड़ते हैं झूटी क़द्रों पर
ज़न-ए-फ़ाहिश पे जिस तरह औबाश

नए अंदाज़ से हनूत हुई
अब न बू देगी ज़िंदगी की लाश

उड़ गया भाप बन के दिल का लहू
अब ज़मीं दूर है क़रीब आकाश

हुए मफ़्लूज वो भी जिन के लिए
एक आलम था बर-सर-ए-परख़ाश

लाला-ए-कोह को दिमाग़ नहीं
नश्शा लाती है मुख़्तलिफ़ ख़शख़ाश

कैसे भूखों मरेंगे इतने लोग
बे-हुदा अहद-ए-नौ में फ़िक्र-ए-क़िमाश

हफ़्त-इक़्लीम के ख़ज़ानों पर
हाथ डालेंगे अन-गिनत क़ल्लाश

अब न आया हिसार से बाहर
नक़्श में ख़ुद ही ढल गया नक़्क़ाश

रश्क-ए-गुल हों कि मिस्ल-ए-नश्तर हों
यही नाख़ुन 'नज़र' में ज़ख़्म-तराश