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जादा-ए-मर्ग-ए-मुसलसल से गुज़रता जाऊँ | शाही शायरी
jada-e-marg-e-musalsal se guzarta jaun

ग़ज़ल

जादा-ए-मर्ग-ए-मुसलसल से गुज़रता जाऊँ

मख़मूर सईदी

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जादा-ए-मर्ग-ए-मुसलसल से गुज़रता जाऊँ
ज़िंदगी ये है कि हर साँस में मरता जाऊँ

ख़ून हर लम्हा-ए-मौजूद का करता जाऊँ
रंग तस्वीर-ए-शब-ओ-रोज़ में भरता जाऊँ

मुंतशिर सिलसिला-ए-ग़म को तो करता जाऊँ
साथ ही साथ मगर ख़ुद भी बिखरता जाऊँ

बस यूँही हमसरी-ए-अहल-ए-जहाँ मुमकिन है
दम-ब-दम अपनी बुलंदी से उतरता जाऊँ

मैं किसी मंज़िल-ए-हस्ती पे कहाँ रुकता था
राह में तुम जो न मिल जाओ गुज़रता जाऊँ

उम्र भर जादा-ए-पुर-ख़ार पे चलना होगा
दो-घड़ी साया-ए-गुल में भी ठहरता जाऊँ

अपनी क़िस्मत हूँ उलझता ही चला जाता हूँ
तेरी तक़दीर नहीं हूँ कि सँवरता जाऊँ

मद्द-ओ-जज़्र-ए-यम-ए-एहसास का पर्वर्दा हूँ
डूबता जाऊँ मगर ख़ुद ही उभरता जाऊँ

आ ही निकला हूँ जो यादों के खंडर तक 'मख़मूर'
भूले-बिसरों से मुलाक़ात भी करता जाऊँ