जा के ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से
फूल इस बार खिले हैं बड़ी तय्यारी से
अपनी हर साँस को नीलाम किया है मैं ने
लोग आसान हुए हैं बड़ी दुश्वारी से
ज़ेहन में जब भी तिरे ख़त की इबारत चमकी
एक ख़ुश्बू सी निकलने लगी अलमारी से
शाहज़ादे से मुलाक़ात तो ना-मुम्किन है
चलिए मिल आते हैं चल कर किसी दरबारी से
बादशाहों से भी फेंके हुए सिक्के न लिए
हम ने ख़ैरात भी माँगी है तो ख़ुद्दारी से
ग़ज़ल
जा के ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से
राहत इंदौरी