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जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती | शाही शायरी
ja baiThte ho ghairon mein ghairat nahin aati

ग़ज़ल

जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती

वाजिद अली शाह अख़्तर

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जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
उस वक़्त मिरी जान मुरव्वत नहीं आती

नज़दीक भी जा कर न मिला पर्दा-नशीं से
जा दूर हो ऐ दिल तुझे चाहत नहीं आती

इक हम हैं कि हैं नाम-ए-मुबारक पे तसद्दुक़
तुम को तो कभी देख के उल्फ़त नहीं आती

या रंज है या हिज्र है या हुज़्न है या ग़म
कुछ शक्ल बना कर तो मुसीबत नहीं आती

क्या राह-रवी यार की सीखे है तू इस साल
इस तरह गई जिस्म से ताक़त नहीं आती

हर शय के लिए ज़र्फ़ है दरकार जहाँ में
कम-ज़र्फ़ के नज़दीक तो सर्वत नहीं आती

कलकत्ते ने नाबूद किया ख़्वाब-ए-ख़ुशी को
पल-भर मुझे इस शहर में राहत नहीं आती

रहता हूँ ख़याल-ए-रुख़-ए-ज़ेबा में शब-ओ-रोज़
ऐ जान तसव्वुर में वो सूरत नहीं आती

खिलते हैं गुल-ए-शे'र हर इक रोज़ मह-ओ-साल
'अख़्तर' मिरे गुलज़ार पे आफ़त नहीं आती