इत्तिफ़ाक़न जो कहीं अब वो नज़र आते हैं
कितनी यादों के हसीं नक़्श उभर आते हैं
कैसे गुज़री शब-ए-आशुफ़्ता-सराँ किस को ख़बर
लोग तो बाम पे हंगाम-ए-सहर आते हैं
सोच लें आप मिरा साथ कहाँ तक देंगे
मरहले सैकड़ों दौरान-ए-सफ़र आते हैं
यूँ ग़लत तो नहीं चेहरों का तअस्सुर भी मगर
लोग वैसे भी नहीं जैसे नज़र आते हैं
उन से जब तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का ख़याल आता है
राब्ते कितने तसव्वुर में उभर आते हैं

ग़ज़ल
इत्तिफ़ाक़न जो कहीं अब वो नज़र आते हैं
मक़बूल नक़्श