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इतने बे-मेहर मौसमों में भी उस ने हद कर दी मेहरबानी की | शाही शायरी
itne be-mehr mausamon mein bhi usne had kar di mehrbani ki

ग़ज़ल

इतने बे-मेहर मौसमों में भी उस ने हद कर दी मेहरबानी की

ख़ावर अहमद

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इतने बे-मेहर मौसमों में भी उस ने हद कर दी मेहरबानी की
किया मेहमान मुझ मुसाफ़िर को और फिर दिल से मेज़बानी की

उस के अंदाज़ से झलकता था कोई किरदार दास्तानों का
उस की आवाज़ से बिखरती थी कोई ख़ुशबू किसी कहानी की

शाम ख़ामोश थी सो उस ने भी गुफ़्तुगू से गुरेज़ करते हुए
जलते जज़्बों को रक्खा आँखों में जिस्म से दिल की तर्जुमानी की

पहले उस ने गले लगाया मुझे और फिर ले गई बहिश्तों में
एक बात उस ने की ज़मीनी सी दूसरी बात आसमानी की

अब तो हालत हुई रेआया सी अब वो तारीख़ क्या कहें 'ख़ावर'
दिल की जो सल्तनत मिली थी हमें उस पे किस किस ने हुक्मरानी की