इतना मजबूर आदमी क्यूँ है
और अगर है तो आगही क्यूँ है
हर नफ़स नारा-ए-ख़ुदी क्यूँ है
इतना एहसास-ए-कमतरी क्यूँ है
तीरगी इज्ज़-ए-साहिबान-ए-नज़र
रौशनी तक ही रौशनी क्यूँ है
आज ही तो किसी से बिछड़े हैं
आज की रात चाँदनी क्यूँ है
लोग क्या जाने क्या समझ बैठें
'नक़्श' से इतनी बे-रुख़ी क्यूँ है
ग़ज़ल
इतना मजबूर आदमी क्यूँ है
मक़बूल नक़्श