इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा
तुख़्म-ए-एहसास-ए-वफ़ा संग में बोना चाहा
आने वाले किसी तूफ़ान का रोना रो कर
ना-ख़ुदा ने मुझे साहिल पे डुबोना चाहा
संग-दिल क्यूँ न कहें बुत-कदे वाले मुझ को
मैं ने पत्थर का परस्तार न होना चाहा
हज़रत-ए-शैख़ न समझे मिरे दिल की क़ीमत
ले के तस्बीह के रिश्ते में पिरोना चाहा
कोई मज़कूर न था ग़ैर का लेकिन तुम ने
बातों बातों में ये नश्तर भी चुभोना चाहा
दीदा-ए-तर से भी सरज़द हुआ इक जुर्म-ए-अज़ीम
हश्र में नामा-ए-आमाल को धोना चाहा
मरते मरते भी तवक़्क़ो रही दिलदारी की
रख के सर ज़ानू-ए-तक़दीर पे सोना चाहा
हाए किस दर्द से की ज़ब्त की तल्क़ीन मुझे
हँस पड़े दोस्त जो मैं ने कभी रोना चाहा
जिंस-ए-शोहरत बहुत अर्ज़ां थी मगर मैं ने 'हफ़ीज़'
दौलत-ए-दर्द को बे-कार न खोना चाहा
ग़ज़ल
इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा
हफ़ीज़ जालंधरी