इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
चर्ख़-ए-गर्दां को सुकूँ से क्या ग़रज़
दिल में है ऐ ख़िज़्र गर सिदक़-ए-तलब
राह-रौ को रहनुमों से क्या ग़रज़
हाजियो है हम को घर वाले से काम
घर के मेहराब ओ सुतूँ से क्या ग़रज़
गुनगुना कर आप रो पड़ते हैं जो
उन को चंग ओ अरग़नूँ से क्या ग़रज़
नेक कहना नेक जिस को देखना
हम को तफ़्तीश-ए-दरूँ से क्या ग़रज़
दोस्त हैं जब ज़ख़्म-ए-दिल से बे-ख़बर
उन को अपने अश्क-ए-ख़ूँ से क्या ग़रज़
इश्क़ से है मुजतनिब ज़ाहिद अबस
शेर को सैद-ए-ज़बूँ से क्या ग़रज़
कर चुका जब शेख़ तस्ख़ीर-ए-क़ुलूब
अब उसे दुनिया-ए-दूँ से क्या ग़रज़
आए हो 'हाली' प-ए-तस्लीम याँ
आप को चून-ओ-चगूँ से क्या ग़रज़
ग़ज़ल
इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली