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इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई | शाही शायरी
ishq ki mere jo shohrat ho gai

ग़ज़ल

इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
यार से मुझ को नदामत हो गई

ख़ाक अर्ज़-ए-मुद्दआ उस से करूँ
जिस को बातों में कुदूरत हो गई

याँ से जाने को हैं वो आचुक कहीं
क्या बला ऐ अब्र-ए-रहमत हो गई

अब सितम अग़्यार पर करने लगे
मेरे मर जाने से इबरत हो गई

जल्वा-ए-मअ'नी नज़र आने लगा
पीते पीते मय ये सूरत हो गई

उन की बातें उस ने भी छुप कर सुनीं
आज नासेह को नसीहत हो गई

मन्अ-ए-वस्ल-ए-ग़ैर पर हँस कर कहा
बारे अब तुम को भी ग़ैरत हो गई

बू-ए-गुल उस गुल की बू के रू-ब-रू
फ़िल-हक़ीक़त बे-हक़ीक़त हो गई

बस न फ़रमाते फिरो ये 'शेफ़्ता'
गो उन्हें तुम से मोहब्बत हो गई