इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
यार से मुझ को नदामत हो गई
ख़ाक अर्ज़-ए-मुद्दआ उस से करूँ
जिस को बातों में कुदूरत हो गई
याँ से जाने को हैं वो आचुक कहीं
क्या बला ऐ अब्र-ए-रहमत हो गई
अब सितम अग़्यार पर करने लगे
मेरे मर जाने से इबरत हो गई
जल्वा-ए-मअ'नी नज़र आने लगा
पीते पीते मय ये सूरत हो गई
उन की बातें उस ने भी छुप कर सुनीं
आज नासेह को नसीहत हो गई
मन्अ-ए-वस्ल-ए-ग़ैर पर हँस कर कहा
बारे अब तुम को भी ग़ैरत हो गई
बू-ए-गुल उस गुल की बू के रू-ब-रू
फ़िल-हक़ीक़त बे-हक़ीक़त हो गई
बस न फ़रमाते फिरो ये 'शेफ़्ता'
गो उन्हें तुम से मोहब्बत हो गई

ग़ज़ल
इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता