इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी
साए से धूप बनाने में बड़ी देर लगी
मैं हूँ इस शहर में ताख़ीर से आया हुआ शख़्स
मुझ को इक और ज़माने में बड़ी देर लगी
ये जो मुझ पर किसी अपने का गुमाँ होता है
मुझ को ऐसा नज़र आने में बड़ी देर लगी
इक सदा आई झरोके से कि तुम कैसे हो
फिर मुझे लौट के जाने में बड़ी देर लगी
बोलता हूँ तो मिरे होंट झुलस जाते हैं
उस को ये बात बताने में बड़ी देर लगी
मेरे अर्से में कोई सहल न था कार-ए-सुख़न
एक दो शेर कमाने में बड़ी देर लगी
मैं सर-ए-ख़ाक कोई पेड़ नहीं था 'ताबिश'
इस लिए पाँव जमाने में बड़ी देर लगी
ग़ज़ल
इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी
अब्बास ताबिश