इश्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है
पर ये लज़्ज़त तो वो है जी ही जिसे पाता है
आह कब तक मैं बकूँ तेरी बला सुनती है
बातें लोगों की जो कुछ दिल मुझे सुनवाता है
हम-नशीं पूछ न उस शोख़ की ख़ूबी मुझ से
क्या कहूँ तुझ से ग़रज़ जी को मिरे भाता है
बात कुछ दिल की हमारे तो न सुलझी हम से
आपी ख़ुश होवे है फिर आप ही घबराता है
जी कड़ा कर के तिरे कूचे से जब जाता हूँ
दिल-ए-दुश्मन ये मुझे घेर के फिर लाता है
राह पेंडे कभू उस शोख़ के तईं हम से भी
दीद वा दीद तो होती है जो मिल जाता है
'दर्द' की क़द्र मिरे यार समझना वल्लाह
ऐसा आज़ाद तिरे दाम में यूँ आता है
ग़ज़ल
इश्क़ हर-चंद मिरी जान सदा खाता है
ख़्वाजा मीर 'दर्द'