इस क़दर हम ना-तवान-ओ-ज़ार हैं
बाज़ू अपने मछलियों के ख़ार हैं
चाक चाक अपना गरेबाँ हो चुका
इन दिनों दस्त-ए-जुनूँ बेकार हैं
रोते हैं अश्कों के बदले ख़ून गर
अब्र हैं हम लेकिन आतिश-बार हैं
जाते हैं गुलशन से ले ओ बाग़बाँ
हम अगर तेरी नज़र में ख़ार हैं
आस्तीं से पोछिए काहे को अश्क
अब तो मुँह पर ज़ख़्म दामन-दार हैं
देख कर तुझ को मगर हैराँ हुए
आइने जो पुश्त-बर-दीवार हैं
ले उड़ ऐ वहशत कि अपनी पाँव के
मुंतज़िर ख़ार-ए-सर-ए-दीवार हैं
आँखें हैं खूँ-ख़्वार तेरी ऐ मसीह
क्या है बे-परहेज़ ये बीमार हैं
ख़ुद-बख़ुद अपना जनाज़ा है रवाँ
हम ये किस के कुश्ता-ए-रफ़्तार हैं
साया-ए-ख़ंजर में आया ख़्वाब-ए-मर्ग
वाह क्या तालेअ' मिरे बेदार हैं
हम हैं रंजूर अपने अश्क-ओ-आह से
है बुरी आब-ओ-हवा बीमार हैं
अब तो है मेंह का बरसना अपने हाथ
आस्तीनें अब्र-ए-दरिया-बार हैं
सर्व-ओ-शमशाद-ओ-सनोबर बाग़ में
नक़्शा-हा-ए-क़ामत-ए-दिलदार हैं
कौन है बेज़ार इन रोज़ों 'वज़ीर'
हम जो अपने ज़ीस्त से बेज़ार हैं
ग़ज़ल
इस क़दर हम ना-तवान-ओ-ज़ार हैं
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

