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इस क़दर हम ना-तवान-ओ-ज़ार हैं | शाही शायरी
is qadar hum na-tawan-o-zar hain

ग़ज़ल

इस क़दर हम ना-तवान-ओ-ज़ार हैं

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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इस क़दर हम ना-तवान-ओ-ज़ार हैं
बाज़ू अपने मछलियों के ख़ार हैं

चाक चाक अपना गरेबाँ हो चुका
इन दिनों दस्त-ए-जुनूँ बेकार हैं

रोते हैं अश्कों के बदले ख़ून गर
अब्र हैं हम लेकिन आतिश-बार हैं

जाते हैं गुलशन से ले ओ बाग़बाँ
हम अगर तेरी नज़र में ख़ार हैं

आस्तीं से पोछिए काहे को अश्क
अब तो मुँह पर ज़ख़्म दामन-दार हैं

देख कर तुझ को मगर हैराँ हुए
आइने जो पुश्त-बर-दीवार हैं

ले उड़ ऐ वहशत कि अपनी पाँव के
मुंतज़िर ख़ार-ए-सर-ए-दीवार हैं

आँखें हैं खूँ-ख़्वार तेरी ऐ मसीह
क्या है बे-परहेज़ ये बीमार हैं

ख़ुद-बख़ुद अपना जनाज़ा है रवाँ
हम ये किस के कुश्ता-ए-रफ़्तार हैं

साया-ए-ख़ंजर में आया ख़्वाब-ए-मर्ग
वाह क्या तालेअ' मिरे बेदार हैं

हम हैं रंजूर अपने अश्क-ओ-आह से
है बुरी आब-ओ-हवा बीमार हैं

अब तो है मेंह का बरसना अपने हाथ
आस्तीनें अब्र-ए-दरिया-बार हैं

सर्व-ओ-शमशाद-ओ-सनोबर बाग़ में
नक़्शा-हा-ए-क़ामत-ए-दिलदार हैं

कौन है बेज़ार इन रोज़ों 'वज़ीर'
हम जो अपने ज़ीस्त से बेज़ार हैं