इस क़दर आप का इताब रहे
दिल को मेरे न इज़्तिराब रहे
न पटी उन से प्यार की मीज़ान
हाँ मगर रंज बे-हिसाब रहे
यूँ शब-ए-वस्ल का है आलम याद
जैसे बरसों की याद ख़्वाब रहे
हाल-ए-दिल सुन के बोल उठा क़ासिद
याद किस को ये सब किताब रहे
मुंतज़िर हूँ किसी के आने का
किस की आँखों में आ के ख़्वाब रहे
सुब्ह के इस हिजाब ने मारा
रात भर ऐसे बे-हिजाब रहे
ग़ैर का मुँह और आप से बातें
ऐसी बातों से इज्तिनाब रहे
हम भी मर कर अज़ाब से छूटे
आप भी दाख़िल-ए-सवाब रहे
हाए वो दिन ख़ुदा न लाए याद
हम से रूठे जो कुछ जनाब रहे
बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
याद मंसूबा-ए-हुबाब रहे
एक दम का यहाँ तवक़्क़ुफ़ है
ख़ेमा बे-चोब बे-तनाब रहे
कुछ न बन आई उस के आगे 'निज़ाम'
दो ही बातों में ला-जवाब रहे

ग़ज़ल
इस क़दर आप का इताब रहे
निज़ाम रामपुरी