EN اردو
इस जौर ओ जफ़ा से तिरे ज़िन्हार न टूटे | शाही शायरी
is jaur o jafa se tere zinhaar na TuTe

ग़ज़ल

इस जौर ओ जफ़ा से तिरे ज़िन्हार न टूटे

अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ

;

इस जौर ओ जफ़ा से तिरे ज़िन्हार न टूटे
ये दिल तो किसी तरह से ऐ यार न टूटे

ग़ैरों को न कर मुझ दिल-ए-बिस्मिल के मुक़ाबिल
चौ रंग लगाते तिरी तलवार न टूटे

वो शीशा-ए-दिल है कि इसी संग-ए-जफ़ा पर
सौ बार अगर फेंकिए यक-बार न टूटे

रख क़ैस क़दम वादी-ए-लैला में समझ कर
इस दश्त-ए-मोहब्बत का कोई ख़ार न टूटे

जुम्बिश में न ला सुब्हा-ए-इस्लाम को ऐ शेख़
नाज़ुक है मिरा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न टूटे

शाना से 'फ़ुग़ाँ' फिर उलझता है मिरा दिल
उस काकुल-ए-मुश्कीं का कोई तार न टूटे