इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
आवाज़-ए-जरस अब के बरस मुझ को हँसा दे
या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
या प्यास के सहरा में मुझे जीना सिखा दे
मैं भी तिरी ख़ुशबू हूँ मिरी सम्त भी तू देख
मोहलत तुझे गर सिलसिला-ए-मौज-ए-सबा दे
सूरज ने मुझे बर्फ़ किया है तो तुझे क्या
किया तुझ को अगर बर्फ़ मुझे आग लगा दे
ऐसा भी नहीं है कि फ़क़त ख़ाक-नशीं हूँ
आ जाए हवा आ के मिरी ख़ाक उड़ा दे
ख़ुशबू की तरह दर-बदरी ख़ू हो मिरी गर
है शक तो मुझे मेरी निगाहों में गिरा दे
काँटे की जराहत से भी मर जाते हैं कुछ लोग
रख हौसला इतनी भी न अब ख़ुद को सज़ा दे
या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी
थोड़ी सी मिरे शहर को भी आब-ओ-हवा दे
क्या तेरा बिगड़ता है अगर चाँदनी शब तू
इक बार मुझे फिर मेरी आवाज़ सुना दे
ग़ज़ल
इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
वज़ीर आग़ा