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इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं | शाही शायरी
is doshiza miTTi par naqsh-e-kaf-e-pa koi bhi nahin

ग़ज़ल

इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं

शहज़ाद अहमद

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इस दोशीज़ा मिट्टी पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा कोई भी नहीं
झड़ते फूल बरसती बारिश तेज़ हवा कोई भी नहीं

ये दीवारें और दरवाज़े सब आँखों का धोका है
कहने को हर बाब खुला है और खुला कोई भी नहीं

चेहरे जाने-पहचाने थे रूहें बदली बदली थीं
सब ने मुझ से हाथ मिलाया और मिला कोई भी नहीं

एक से मंज़र देख देख कर आँखें दुखने लगती हैं
इस रस्ते पर पेड़ बहुत हैं और हरा कोई भी नहीं

उड़ता बादल चेहरे बुनता और मिटाता जाता है
लाखों आँखें देख रही थीं लेकिन था कोई भी नहीं

जिस के बीच घिरा बैठा हूँ ढेर है बीते लम्हों का
सब मेरी जानिब आए हैं और गया कोई भी नहीं

जलती मिट्टी सूखे काँटे गहरे पानी तीखे संग
सब ख़तरे पाँव के नीचे सर पे बला कोई भी नहीं

हर्फ़ लिखूँ तो पढ़ने वाले क्या क्या नौहे सुनते हैं
कान धरूँ तो इन हर्फ़ों में सौत-ओ-सदा कोई भी नहीं