इस दिल की इमारत में तुम जल्वा दिखा जाना 
या नूर-ए-मुबीं बन कर आँखों में समा जाना 
अपना तो शिकस्ता-दिल इक ख़ाना-ए-वीराँ है 
क़दमों से इसे अपने आबाद बना जाना 
उश्शाक़ के मरक़द पर हसरत यही कहती है 
तुम फ़ित्ना-ए-महशर हो सोतों को जगा जाना 
उन ख़ाक-नशीनों से मिलना तुम्हें लाज़िम है 
उश्शाक़ के कूचे में भूले से तू आ जाना 
मुद्दत से पियासा मैं बैठा हूँ तिरे दर पर 
इक जाम मोहब्बत का ख़ुद आ के पिला जाना 
इस गर्दिश-ए-क़िस्मत ने सर-गश्ता किया याँ भी 
ऐ ख़िज़्र-ए-रह-ए-उल्फ़त तुम राह बता जाना 
आए न सर-ए-बालीं गर मेरे दम-ए-मुर्दन 
अब बहर-ए-दुआ दिलबर मरक़द पे तो आ जाना 
क्या क्या न जफ़ा मुझ पे होती है शब-ए-फ़ुर्क़त 
उल्फ़त ने तिरी मुझ को पाबंद-ए-वफ़ा जाना 
ये इश्क़ 'जमीला' का ऐ ख़िज़्र-ए-रह-ए-उल्फ़त 
महबूब के जल्वे को असरार-ए-ख़ुदा जाना
        ग़ज़ल
इस दिल की इमारत में तुम जल्वा दिखा जाना
जमीला ख़ुदा बख़्श

