इस बुत-कदे में तू जो हसीं-तर लगा मुझे
अपने ही इक ख़याल का पैकर लगा मुझे
जब तक रही जिगर में लहू की ज़रा सी बूँद
मुट्ठी में अपनी बंद समुंदर लगा मुझे
मुरझा गया जो दिल में उजाले का सुर्ख़ फूल
तारों भरा ये खेत भी बंजर लगा मुझे
अब ये बता कि रूह के शो'ले का क्या है रंग
मरमर का ये लिबास तो सुंदर लगा मुझे
क्या जानिए कि इतनी उदासी थी रात क्यूँ
महताब अपनी क़ब्र का पत्थर लगा मुझे
आँखों को बंद कर के बड़ी रौशनी मिली
मद्धम था जो भी नक़्श उजागर लगा मुझे
ये क्या कि दिल के दीप की लौ ही तराश ली
सूरज अगर है किरनों की झालर लगा मुझे
सदियों में तय हुआ था बयाबाँ का रास्ता
गुलशन को लौटते हुए पल भर लगा मुझे
मैं ने उसे शरीक-ए-सफ़र कर लिया 'शकेब'
अपनी तरह से चाँद जो बे-घर लगा मुझे
ग़ज़ल
इस बुत-कदे में तू जो हसीं-तर लगा मुझे
शकेब जलाली