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इस औज पर न उछालो मुझे हवा कर के | शाही शायरी
is auj par na uchhaalo mujhe hawa kar ke

ग़ज़ल

इस औज पर न उछालो मुझे हवा कर के

फ़ारिग़ बुख़ारी

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इस औज पर न उछालो मुझे हवा कर के
कि मैं जहाँ से हूँ उतरा ख़ुदा ख़ुदा कर के

अज़ल से मुझ से है वाबस्ता ख़ैर-ओ-शर का निज़ाम
न देखो मुझ को मिरी ज़ात से जुदा कर के

मैं जानता हूँ मुक़फ़्फ़ल हैं सारे दरवाज़े
मुझे ये ज़िद है कि गुज़रूँ मगर सदा कर के

मैं अपने दौर के इस कर्ब का हूँ आईना
जो पेश-रौ हुए रुख़्सत मुझे अता कर के

शिकस्त-ए-ज़ब्त पे मैं भी बहुत ख़जिल हूँ मगर
खुला है उस का भरम मेरा सामना कर के

ये फ़ख़्र कम नहीं फ़ारिग़ है दिल ग़रीब तो क्या
कि आबरू तो नहीं खोई इल्तिजा कर के