इस अरसा-ए-महशर से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की तमन्ना है तो मर क्यूँ नहीं जाते
ऐ शहर-ए-ख़राबात के आशुफ़्ता-मिज़ाजों
जब टूट चुके हो तो बिखर क्यूँ नहीं जाते
इस दर्द की शिद्दत भी नुमू-ख़ेज़ बहुत है
जो ज़ख़्म हैं सीने में वो भर क्यूँ नहीं जाते
हम मोतकिफ़-ए-दश्त-ए-अज़िय्यत तो नहीं हैं
पैरों से मसाफ़त के भँवर क्यूँ नहीं जाते
जब आए हैं मक़्तल में तो क्या लौट के जाना
अब अपने लहू में ही निखर क्यूँ नहीं जाते
जब डूब के मरना है तो क्या सोच रहे हो
इन झील सी आँखों में उतर क्यूँ नहीं जाते
ये भी कोई ज़िद है कि ये 'शाहिद' की अना है
जाते हैं जिधर लोग उधर क्यूँ नहीं जाते
ग़ज़ल
इस अरसा-ए-महशर से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
शाहिद कमाल