इस अपनी किरन को आती हुई सुब्हों के हवाले करना है
काँटों से उलझ कर जीना है फूलों से लिपट कर मरना है
शायद वो ज़माना लौट आए शायद वो पलट कर देख भी लें
इन उजड़ी उजड़ी नज़रों में फिर कोई फ़साना भरना है
ये सोज़-ए-दरूँ ये अश्क-ए-रवाँ ये काविश-ए-हस्ती क्या कहिए
मरते हैं कि कुछ दिन जी लें हम जीते हैं कि आख़िर मरना है
इक शहर-ए-वफ़ा के बंद दरीचे आँखें मीचे सोचते हैं
कब क़ाफ़िला-हा-ए-ख़ंदा-ए-गुल को इन राहों से गुज़रना है
इस नीली धुँद में कितने बुझते ज़माने राख बिखेर गए
इक पल की पलक पर दुनिया है क्या जीना है क्या मरना है
रस्तों पे अँधेरे फैल गए इक मंज़िल-ए-ग़म तक शाम हुई
ऐ हम-सफ़रो क्या फ़ैसला है अब चलना है कि ठहरना है
हर हाल में इक शोरीदगी-ए-अफ़्सून-ए-तमन्ना बाक़ी है
ख़्वाबों के भँवर में बह कर भी ख़्वाबों के घाट उतरना है
ग़ज़ल
इस अपनी किरन को आती हुई सुब्हों के हवाले करना है
मजीद अमजद

