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इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए | शाही शायरी
irfan-o-agahi ke saza-war hum hue

ग़ज़ल

इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए

अख़्तर ज़ियाई

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इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए
सोया पड़ा था शहर कि बेदार हम हुए

ता उम्र इंतिज़ार सही पर ब-रोज़-ए-हश्र
अच्छा हुआ कि तेरे तलबगार हम हुए

हम पर वफ़ा-ए-अहद अनल-हक़ भी फ़र्ज़ था
इस वास्ते कि महरम-ए-असरार हम हुए

ठहरेगी एक दिन वही मेराज-ए-बंदगी
जो बात कह के आज गुनहगार हम हुए

होते गए वो ख़ल्क़-फ़रेबी में होशियार
जितना कि तजरिबे से समझदार हम हुए

नादान थे कि मसनद-ए-इरशाद छोड़ कर
हल्क़ा-ब-गोश-ए-सीरत-ओ-किरदार हम हुए

इस दौर-ए-ख़ुद-फ़रोश में 'अख़्तर' ब-सद ख़ुलूस
ख़म्याज़ा-संज-ए-जुरअत-ए-इज़हार हम हुए