इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए
सोया पड़ा था शहर कि बेदार हम हुए
ता उम्र इंतिज़ार सही पर ब-रोज़-ए-हश्र
अच्छा हुआ कि तेरे तलबगार हम हुए
हम पर वफ़ा-ए-अहद अनल-हक़ भी फ़र्ज़ था
इस वास्ते कि महरम-ए-असरार हम हुए
ठहरेगी एक दिन वही मेराज-ए-बंदगी
जो बात कह के आज गुनहगार हम हुए
होते गए वो ख़ल्क़-फ़रेबी में होशियार
जितना कि तजरिबे से समझदार हम हुए
नादान थे कि मसनद-ए-इरशाद छोड़ कर
हल्क़ा-ब-गोश-ए-सीरत-ओ-किरदार हम हुए
इस दौर-ए-ख़ुद-फ़रोश में 'अख़्तर' ब-सद ख़ुलूस
ख़म्याज़ा-संज-ए-जुरअत-ए-इज़हार हम हुए
ग़ज़ल
इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए
अख़्तर ज़ियाई