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इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस | शाही शायरी
inkar humse ghair se iqrar bas ji bas

ग़ज़ल

इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस

नज़ीर अकबराबादी

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इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस
देखे तुम्हारे हम ने ये अतवार बस जी बस

इतना हूँ जा-ए-रहम जो करता है वो जफ़ा
तो उस से रो के कहते हैं अग़्यार बस जी बस

साक़ी हमें पिलाइए यूँ जाम पै-ब-पै
जो हम-नशीन कह उठें यक-बार बस जी बस

हूँ ना-उमीद वस्ल से यूँ जैसे वक़्त-ए-नज़'अ
रो कर कहे तबीब से बीमार बस जी बस

ग़श हूँ मैं वक़्त-ए-बोसा जो कहता है हँस के वो
मुँह को हटा हटा के ब-तकरार बस जी बस

उस का जो बस जी बस मुझे याद आवे है तो आह
पहरों तलक मैं कहता हूँ हर बार बस जी बस

कल वो जो बोला टुक तो कहा हम ने मुँह फिरा
ख़ैर अब न हम से बोलिए ज़िन्हार बस जी बस

हम दिल लगा के तुम से हुए याँ तलक ब-तंग
जो अपने जी से कहते हैं लाचार बस जी बस

सुन कर कहा कि क्या मिरे लगती है दिल में आग
शिकवा से जब करे है तू इज़हार बस जी बस

ऐसे तमांचे मारुँगा मुँह में तिरे 'नज़ीर'
गर तू ने मुझ से फिर कहा एक बार बस जी बस