इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए
ख़ून-ए-जिगर से दावत-ए-मिज़्गाँ न कीजिए
मर जाइए न कीजिए ज़िक्र-ए-बहिश्त-ओ-हूर
अब ख़्वाब को भी ख़्वाब-ए-परेशाँ न कीजिए
बाक़ी हो जो भी हश्र यहीं पर उठाइए
मरने के ब'अद ज़ीस्त का सामाँ न कीजिए
दोज़ख़ को दीजिए न परागंदगी मिरी
शीराज़ा-ए-बहिश्त परेशाँ न कीजिए
शायद यही जहाँ किसी मजनूँ का घर बने
वीराना भी अगर है तो वीराँ न कीजिए
क्या नाख़ुदा बग़ैर कोई डूबता नहीं
मुझ को मिरे ख़ुदा से पशेमाँ न कीजिए
है बुत-कदे में भी उसे ईमान का ख़याल
क्यूँ ए'तिबार-ए-मर्द-ए-मुसलमाँ न कीजिए
हम से ये बार-ए-लुत्फ़ उठाया न जाएगा
एहसाँ ये कीजिए कि ये एहसाँ न कीजिए
आईना देखिए मिरी सूरत न देखिए
मैं आईना नहीं मुझे हैराँ न कीजिए
तू ही अज़ीज़-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब है 'हफ़ीज़'
क्या कीजिए अगर तुझे क़ुर्बां न कीजिए
ग़ज़ल
इन गेसुओं में शाना-ए-अरमाँ न कीजिए
हफ़ीज़ जालंधरी