इल्म में झींगर से बढ़ कर कामराँ कोई नहीं
चाट जाता है किताबें इम्तिहाँ कोई नहीं
ज़ुल्म है बा-वस्फ़ मेहर इस को कहें ना-मेहरबाँ
आसमाँ से बढ़ के सच्चा मेहरबाँ कोई नहीं
लखनऊ दिल्ली इन्हीं शहरों पे क्या मौक़ूफ़ है
हर जगह अहल-ए-ज़बाँ हैं बे-ज़बाँ कोई नहीं
है मसल मशहूर दस्त-ए-ख़ुद-दहान-ए-ख़ुद ज़रीफ़'
होटलों में मेहमान-ओ-मेज़बाँ कोई नहीं
ग़ज़ल
इल्म में झींगर से बढ़ कर कामराँ कोई नहीं
ज़रीफ़ लखनवी