इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
मारी जो चीख़ रेल ने जंगल दहल गया
सोया हुआ था शहर किसी साँप की तरह
मैं देखता ही रह गया और चाँद ढल गया
ख़्वाहिश की गर्मियाँ थीं अजब उन के जिस्म में
ख़ूबाँ की सोहबतों में मिरा ख़ून जल गया
थी शाम ज़हर-ए-रंग में डूबी हुई खड़ी
फिर इक ज़रा सी देर में मंज़र बदल गया
मुद्दत के बा'द आज उसे देख कर 'मुनीर'
इक बार दिल तो धड़का मगर फिर सँभल गया
ग़ज़ल
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
मुनीर नियाज़ी